परिचय
देबस्नान पूर्णिमा, जिसे स्नानयात्रा भी कहा जाता है, पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर में ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। इस दिन भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा को 108 कलश जल से स्नान कराया जाता है, जो चंदन, कपूर, केसर और सुपारी के पेस्ट से सुगंधित होता है। इसके बाद देवताओं को गजानन वेश में सजाया जाता है। यह पर्व जगन्नाथ भगवान के जन्मदिन के रूप में भी मनाया जाता है और रथयात्रा से पहले की एक महत्वपूर्ण पूजा विधि है।
पुरी के जगन्नाथ मंदिर का स्नान उत्सव एक प्राचीन और पवित्र परंपरा है। यह उत्सव महाप्रभु जगन्नाथ के दारुब्रहम रूप में अवतरण की पहली लीला के रूप में मान्यता प्राप्त है। राजा इंद्रद्युम्न ने महाप्रभु के प्रथम अवतरण के समय इस स्नान लीला का आयोजन किया था, जो तब एक काठ के मंच पर संपन्न हुआ था। इसलिए इसे मंचस्नान भी कहा जाता है। इस दिन को पतितपावन लीला भी कहा जाता है क्योंकि इस लीला में सभी जातियों और वर्गों के लोग भगवान के दर्शन कर सकते हैं।
स्नान पूर्णिमा के दिन, श्रीजगन्नाथ मंदिर में एक विशेष स्नान मंडप तैयार किया जाता है। इस दिन से पहले, मंदिर के अंदर सभी नियमित पूजा विधियों का समापन होता है और फिर स्नान की तैयारी शुरू होती है। स्नान के दिन, मंदिर के कुएं से 108 कलश जल निकाला जाता है, जिसे चंदन, कपूर, केसर और सुपारी के पेस्ट से सुगंधित किया जाता है।
जगन्नाथ मंदिर के पूर्वी हिस्से की सीमा पर स्थित स्नान मंडप (स्नान पंडाल) की लंबाई 75 फीट है और यह इतनी ऊंचाई पर है कि मंदिर के ठीक बाहर खड़े भक्त देवताओं का स्पष्ट दृश्य देख सकते हैं। यह विशेष मंडप देवताओं के स्नान के लिए ही बनाया गया है। भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा की पवित्र त्रिमूर्ति को वास्तव में स्नान मंडप में उनके स्थानों पर बांधा जाता है ताकि मूर्तियों को एक स्थिर स्थान पर रखा जा सके।
धाड़ी पहंडी का मतलब मूर्तियों को एक के बाद एक जुलूस में बैठाना होता है। इस प्रक्रिया के बाद, मूर्तियों के चेहरे से कपूर के पानी से “पसीना” पोंछा जाता है। यह एक महत्वपूर्ण और पवित्र प्रक्रिया है जो उत्सव की शुरुआत को चिह्नित करती है।
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हाथी अवतार
देवताओं पर सुगंधित जल डालने के बाद, पुरी के गजपति राजा द्वारा स्नान मंडप में छेरा पन्हारा अनुष्ठान शुरू होता है। इसके बाद, सेवक हती बेसा करते हैं, जहाँ भगवान जगन्नाथ और बलभद्र को हाथी की पोशाक पहनाई जाती है और देवी सुभद्रा को कमल के फूलों से सजाया जाता है। इस वेशभूषा को गजानन वेश कहा जाता है, जो भगवान गणेश के सम्मान में किया जाता है।
दर्शन के लिए सभी के लिए खुला
स्नान पूर्णिमा साल का एकमात्र ऐसा समय है जब लोग, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, पवित्र त्रिदेवों के दर्शन कर सकते हैं। इसे सहाना मेला कहा जाता है। इस दिन, हजारों भक्त मंदिर के बाहर इकट्ठा होते हैं और देवताओं के दर्शन का लाभ उठाते हैं।
बीमारी और उपचार
स्नान के बाद, पवित्र त्रिदेव अनाबसरा पिंडी (गर्भगृह का हिस्सा) में चले जाते हैं, जहाँ वे अगले 15 दिनों तक स्वास्थ्य लाभ लेते हैं। यह पखवाड़ा जब भगवान बीमार पड़ते हैं, उसे अनासर कहते हैं। देवताओं की बीमारी का इलाज अनासर पना (वन उत्पादों से बना व्यंजन) से किया जाता है, जिसे विश्वबासु के वंशज, जिन्हें दैतापति कहते हैं, बनाते हैं। दैतापति सेवक होते हैं, जिन्हें साल में सिर्फ़ एक बार अनासर के दौरान पवित्र त्रिदेवों की सेवा करने का मौका मिलता है।
नया रूप
मूर्तियों को स्नान कराने से उनका रंग धुल जाता है। इसलिए, 16वें दिन उन्हें फिर से रंगा जाता है और कपड़े पहनाए जाते हैं और रथ यात्रा के लिए आगे बढ़ने से पहले भक्तों के दर्शन के लिए रत्न सिंहासन पर बिठाया जाता है। यह प्रक्रिया नेत्रोत्सव कहलाती है।
गजानन वेश के पीछे एक दिलचस्प कथा है। महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण गणपति भट्ट ने एक बार श्री जगन्नाथ मंदिर के महिमा के बारे में सुना और भगवान गणेश के भक्त होने के नाते, उन्होंने दर्शन के लिए यात्रा की। जब उन्होंने भगवान जगन्नाथ का दारु ब्रह्म रूप देखा और उसमें गज रूप नहीं पाया, तो वे क्रोधित हो गए और मंदिर छोड़ दिया। अगले दिन, देवस्नान पूर्णिमा के अवसर पर, भगवान जगन्नाथ ने गणपति भट्ट को स्नान यात्रा देखने का निमंत्रण दिया। जब उन्होंने देखा कि भगवान जगन्नाथ गजानन वेश में हैं, तो उन्होंने अपनी भूल को समझा और भगवान से माफी मांगी। तब से, प्रत्येक वर्ष देवस्नान पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ को गजानन वेश धारण किया जाता है।
देबस्नान पूर्णिमा का पर्व न केवल धार्मिक महत्व का है बल्कि यह सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का भी प्रतीक है। यह पर्व हमें हमारी धार्मिक परंपराओं की गहराई और उनके पीछे छिपे विज्ञान और तात्त्विकता को समझने का अवसर प्रदान करता है। पुरी में मनाया जाने वाला यह महोत्सव न केवल ओडिशा बल्कि पूरे भारत के भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह हमारे सांस्कृतिक वैभव और धार्मिक आस्था का अद्वितीय प्रतीक है, जो हमें हमारे पूर्वजों की समृद्ध धरोहर से जोड़ता है।
FAQ
Q-1 हम देवास्नान पूर्णिमा क्यों मनाते हैं?
देवास्नान पूर्णिमा, जिसे स्नान यात्रा भी कहा जाता है, ओडिशा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह त्योहार जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों के विशेष स्नान के लिए समर्पित है। पुराणों के अनुसार, यह दिन देवताओं के स्नान का प्रतीक है। देवास्नान पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ का जन्मदिन भी माना जाता है। इस दिन, मंदिर में भगवान की मूर्तियों को 108 कलशों से स्नान कराया जाता है, जिससे उनकी शीतलता और शुद्धि होती है। यह उत्सव भक्तों के लिए भगवान के प्रति अपनी भक्ति और श्रद्धा प्रकट करने का एक महत्वपूर्ण अवसर होता है।
Q-2 स्नान यात्रा का क्या महत्व है?
स्नान यात्रा, ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का प्रमुख त्योहार है, जो देवास्नान पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस पावन अवसर पर, भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को 108 पवित्र जलकलशों से स्नान कराया जाता है। इस धार्मिक अनुष्ठान का उद्देश्य भगवानों को शुद्ध करना और उनकी दिव्यता को पुनर्जीवित करना है। यह त्योहार भक्तों के लिए आध्यात्मिक शुद्धिकरण और भगवान के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करने का अवसर प्रदान करता है। स्नान यात्रा से जुड़े अनुष्ठान और उत्सव मंदिर परिसर में विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करते हैं, जिससे भक्तों को अपार मानसिक शांति और आशीर्वाद प्राप्त होता है।
Q-3 स्नान यात्रा का इतिहास और महत्व
Q-4 भगवान जगन्नाथ का जन्मदिन किस दिन है?
भगवान जगन्नाथ का जन्मदिन ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, जिसे देवास्नान पूर्णिमा भी कहते हैं। इस दिन, ओडिशा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर में विशेष अनुष्ठान होते हैं। भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्तियों को 108 पवित्र जलकलशों से स्नान कराया जाता है। यह धार्मिक अनुष्ठान भगवान के जन्म का प्रतीक है और उनकी दिव्यता का उत्सव है। भक्तगण इस दिन विशेष भक्ति और श्रद्धा से मंदिर में एकत्र होते हैं, जिससे आध्यात्मिक ऊर्जा और सकारात्मकता का माहौल बनता है, जो सभी को आशीर्वाद और शांति प्रदान करता है।
Q-5 क्या जगन्नाथ मंदिर 14 दिनों के लिए बंद है?
जगन्नाथ मंदिर हर साल देवास्नान पूर्णिमा के बाद 14 दिनों के लिए बंद रहता है, जिसे “अनवसर” कहा जाता है। इस अवधि के दौरान, भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को स्नान के बाद बुखार होने की पौराणिक मान्यता के तहत विश्राम दिया जाता है। मूर्तियों को मंदिर के अंदर विशेष कक्ष में रखा जाता है, जहां उनकी देखभाल और उपचार होता है। इस समय के दौरान, भक्तों के दर्शन बंद रहते हैं, लेकिन वे भगवान की पूजा और आराधना अपने घरों में करते हैं। यह अनुष्ठान भगवान के मानवीय रूप की भावना को दर्शाता है और भक्तों के साथ उनके गहरे संबंध को मजबूत करता है।
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