श्रीगुंडीचा के ठीक पूर्व दिन श्रीमंदिर सदर कार्यालय के सामने रथखला में खड़े तीनों रथों को सजाकर श्रीविग्रह की आज्ञामाला के बाद अपराह्न में रथों को खींचकर सिंहद्वार के सामने लाया जाता है। उल्लेखनीय है कि रथखला की परंपरा के अनुसार पहले जगन्नाथ, फिर सुभद्रा और अंत में बलभद्र के रथ को खींचा जाता है।
नेत्रोत्सव के दिन विलंबित रात्रि में अनसर पिंडी में विराजमान श्रीविग्रह की कुछ गुप्त नीतियों जैसे बाहुटकण्ट, सेनापट, शुक्ल सज आदि कार्य संपन्न होते हैं। श्रीगुंडीचा दिन प्रातःकाल से ठाकुरजी की मंगला आरती, मिलम, अवकाश, रोष होम, सूर्य पूजा, द्वारपाल पूजा, वेष आदि नीतियां पालीया सेवकों द्वारा संपन्न होती हैं। इसके बाद गुपालवल्लभ और सकल धूप (खिचड़ी भोग) पूजा की जाती है। अन्यतः श्रीमंदिर के पुरोहित और अन्य श्रोत्रीय ब्राह्मणों द्वारा रथ प्रतिष्ठा कार्य होता है। तत्पश्चात ठाकुरजी की मनमोहक पहंडी नीति होती है, जिसके पूर्व बिजे काहली बजकर मंगलापर्ण नीति बढ़ती है।
पहंडी समय में पहले श्रीसुदर्शन, फिर श्रीबलभद्र, श्रीसुभद्रा और श्रीजगन्नाथ धाड़ी पहंडी में बिजे होते हैं। जगमोहन में घंट, पकाउज आदि वाद्य बजते हैं। विभिन्न मठों के मठाधीश, विशिष्ट व्यक्ति चामर, आलट सेवा करते हैं और कुछ विशेष स्थानों पर पंती भोग होता है। पहंडी देखने के लिए मंदिर प्रशासन द्वारा पहंडी दर्शन टिकट बेचे जाते हैं और दर्शनों को मंदिर परिसर में प्रवेश की अनुमति दी जाती है। ठाकुरजी जगमोहन के सात पावाच में पहुंचते हैं, तभी राघव दास मठ प्रदत्त ताहिया को श्रीमस्तक पर लगाया जाता है। पहंडी समय में बेहरा खुंटिया मणिमा पुकार देते हैं। सम्पूर्ण बड़ देउल और सिंहद्वार क्षेत्र हुलहुली, हरिबोल, जय जगन्नाथ और देव ध्वनि से गुंजायमान होता है। श्रीविग्रह रथारूढ़ होने के बाद पुष्पालक महाजन श्रीमदनमोहन को नंदीघोष रथ पर और राम, कृष्ण विग्रह को तालध्वज रथ पर अधिष्ठित करते हैं। परंपरा के अनुसार श्रीमंदिर के घसा (तेलिंगी) और काहाली वाद्य के साथ बनिया सेवकों से सोल चिता लाकर सिंहद्वार संलग्न छावनी मठ में रखी जाती है। रथ पर रंधा, फूलमाल, वेष, शोल चिता आदि नीति बढ़ने के साथ-साथ गोवर्धन पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य तीन रथों पर श्रीविग्रह का दर्शन करते हैं। इसके बाद पारंपरिक नीति में गजपति महाराज द्वारा छेरापहारा नीति संपन्न होती है। इससे पूर्व श्रीविग्रह की नीति के लिए आवश्यक दैनिक साज, वस्त्र और अन्य नित्य उपयोगी वस्तुएं सिंदुक को कोठ सुवासीया सेवक रथ पर लाकर रखते हैं। छेरा पहारा नीति के बाद रथ में सारथी को अधिष्ठित किया जाता है। रथ से चारमाल खोलने के बाद घोड़े बांधे जाते हैं। इस कार्यक्रम के बाद रथ को रस्सी लगाकर रथ खींचा जाता है।
पुरुषोत्तम क्षेत्र में प्राचीन काल से श्रीविग्रह की यह पहंडी बीजे हो रही है, यह अब भी अज्ञात है। पहंडी शब्द संस्कृत के पादहुण्डन या पाद हुंड शब्द से बना है। पाहुंड पाहुंड चलने को या अक्षरिक अर्थ में एक-एक पाद उठाकर चलने को पहंडी कहा जाता है। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार यह पाहुंड शब्द का अपभ्रंश है। संभवतः स्नान और रथयात्रा के आरंभ काल से श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र में अधिष्ठित चतुर्द्धामूर्ति की पहंडी बीजे नीति संपन्न हो रही है।
श्रीजगन्नाथ महाप्रभु की दो मुख्य यात्राएं जैसे स्नान और श्रीगुंडीचा यात्रा में श्रीमंदिर और श्रीगुंडीचा मंदिर से श्रीविग्रह पहंडी बीजे करते हैं। इन दोनों यात्राओं में कुल मिलाकर छह बार पहंडी होती है। इनमें से 1- ज्येष्ठ पूर्णिमा दिन रत्न सिंहासन से स्नान यात्रा के लिए आनंद बाज़ार में स्थित स्नान मंडप को बीजे, 2- स्नान पूर्णिमा या ज्येष्ठ पूर्णिमा दिन विलंबित रात्रि में स्नान मंडप से अनसर पिंडी को बीजे, 3- श्रीगुंडीचा दिन अनसर पिंडी से श्रीमंदिर सिंहद्वार में स्थित तीन रथों को बीजे, 4- गुंडीचा मंदिर के सामने स्थित रथ से गुंडीचा घर सिंहासन को बीजे, 5- बाहुड़ा यात्रा दिन गुंडीचा घर से तीन रथों को बाहुड़ा बीजे और नीलाद्रि बीजे दिन सिंहद्वार में स्थित तीन रथों से श्रीमंदिरस्थ रत्न सिंहासन को बीजे करते हैं।
भगवान अलारनाथ || Bhagaban Alarnath
देबस्नान पूर्णिमा || Debasnan Purnima
महाप्रभु के इन छह पहंडी में तीन बार गोटी पहंडी और तीन बार धाड़ी पहंडी होती है। श्रीविग्रह के सभी बीजे समय धाड़ी पहंडी और बाहुड़ा बीजे में गोटी पहंडी संपन्न होती है। एक पहंडी में एक मूर्ति ठाकुर बीजे होकर उद्दिष्ट स्थान पर पहुंचने के बाद अन्य विग्रह की पहंडी आरंभ होती है। किंतु धाड़ी पहंडी में ठाकुर एक-एक कर एक साथ बीजे करते हैं। श्रीविग्रह के इस पहंडी बीजे समय और पूर्व में कुछ विशेष नीतियां संपन्न होती हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा दिन प्रातःकाल से रत्न सिंहासन में महाप्रभु की केवल मंगला अर्पण कर सबसे पहले श्रीसुदर्शन और फिर बलभद्र, सुभद्रा, जगन्नाथ की पहंडी बीजे होती है। सुदर्शन और सुभद्रा दैतापति के हाथ और स्कंध का सहारा लेकर पहंडी बीजे करते हुए रथारोहण करते हैं, जबकि जगन्नाथ और बलभद्र को दैतापति और अन्य सेवक पाट डोरी या रज्जु द्वारा खींचकर धीरे-धीरे पहंडी बीजे कराते हैं। पहंडी बीजे से पूर्व तीन बाड में पूजा पांडा जगन्नाथ के बाड में, मुदिरथ बलभद्र के बाड में और पति महापात्र सुभद्रा के बाड में मंगला अर्पण करते हैं। गराबडू सेवक मंगला अर्पण के सभी सामान नीति संबंधित सेवक को देते हैं। मंगला अर्पण समय में सुध्ध सुआर और भंडार मेकाप भी वहां उपस्थित होते हैं और उक्त नीति में भाग लेते हैं। बाडग्राही दैतापति और अन्य सेवक भी इस समय उपस्थित होते हैं। श्रीजीउ को पाट अगन, आनंद बाजार, भीतर सिंहद्वार, बाइसिपाहाच, सिंहद्वार, गुमुट, अरुण स्तंभ द्वारा रथ तक ले जाया जाता है।
श्रीविग्रह का पवित्र पहंडी (रथ यात्रा) बीजे के समय सबसे पहले बीजे काहालि बजाया जाता है, उसके बाद घंटुआ, काहालिया, बाजंतरी, ओलार, छातार प्रमुख सेवकों की उपस्थिति में घंटे और वाद्य आदि ताल के साथ बजते हैं। भक्तगण तथा दर्शनार्थी इस समय पुष्प वर्षा करते हैं और हरिबोल व हुलहुली की पवित्र ध्वनि से संपूर्ण परिवेश आनंदित हो उठता है। पहंडी के समय पंडा, पुष्पालक और अन्य सेवक डोरी पकड़े होते हैं। छामु खुण्टिया, बेहेरा खुण्टिया, सेवक पहंडी तथा ठाकुर के आगे बेत लिए मणिमा, श्रीअंग को सावधान बोलते हुए ठाकुर के आगे-आगे जुड़ जाते हैं।
इस पवित्र पहंडी बीजे में भाग लेने वाले सेवकगण कुछ विशेष निष्ठा का पालन करते हैं, जैसे रात को नहीं सोते, अशौच (मलिन) होकर या शर्ट-पैंट पहनकर महाप्रभु के पहंडी नीत में भाग नहीं ले सकते। चतुर्धा मूर्ति सात पावाच ऊपर परंपरागत क्रम से बीजे होकर आते हैं। इस समय राघवदास मठ से दी गई सोने, जरी, तुलसी, फूल और बांस पातिया से बने टाहिया ठाकुर के मस्तक पर लगाई जाती है। इस समय कुछ विशिष्ट मठों से पंति भोग तथा चामर, आलटा सेवा की जाती है।
घंटुआ सेवक ताल में घंटे बजाते हैं, साथ ही पखाउज वाद्य और आगे-आगे गोटीपुआ नृत्य करते हैं तथा उपस्थित जनता हरिबोल, हुलहुली शब्द से संपूर्ण परिवेश प्रकम्पित हो उठता है।
रथयात्रा के दिन ठाकुर का मंगल आलति, अवकाश, खिचड़ी भोग (सुबह धूप), मंगला अर्पण आदि नीतियां संपन्न होती हैं। इस समय महाप्रभु अनसार पिंडी या भीतरी काठ के निकट चका पर बैठते हैं। पहंडी बीजे के समय भीतरी बेढ़ा और आनंद बाजार से गुजरते हुए बाईसी पावाच पर ठाकुर के उद्देश्य से कुछ विशिष्ट मठ, सेवायत और निजोगों द्वारा पणा और पंति भोग आदि की जाती है।
सुदर्शन, सुभद्रा, बलभद्र और जगन्नाथ क्रमशः देवदलन, तालध्वज, नंदीघोष रथ पर आसीन होते हैं। पहंडी के बाद पुष्पालक महाजन मदनमोहन को जगन्नाथ रथ में और रामकृष्ण विग्रह को बलभद्र के रथ में बीजे करते हैं।
ठाकुर का नीलाद्री बीजे में श्रीमंदिर और गुंडिचा घर की पहंडी बीजे से पहले मदनमोहन और रामकृष्ण विग्रह को बीजे किया जाता है। रथ पर पहंडी बीजे से पहले रथ पर ठाकुर की कुछ विशेष नीतियां, मुधिरस्त, पतिमहापात्र सेवकों द्वारा संपन्न होती हैं।
बहुड़ा बीजे के समय पतिमहापात्र सेवक ठाकुर को घसा, धंडी, बिड़ीआ आदि अर्पित करते हैं। इसके अलावा, बहुड़ा के दिन गुंडिचा मंदिर में ठाकुर की पहंडी बीजे में भीतर बेढ़ा में पहुँचने पर मुक्तिमंडप से एक पंति भोग होता है और राघव दास मठ प्रदत्त फूल टाहिया लगाई जाती है।
महाप्रभु के पहंडी से पहले श्रीमंदिर के कोठ सुआंसीआ सेवक गुंडिचा मंदिर के रत्न सिंहासन तथा स्नान पूर्णिमा के समय श्रीमंदिर स्थित रत्न सिंहासन में चारमाल बांधते हैं। सिंहासन से नेही चारमाल पर ठाकुर धीरे-धीरे पहंडी बीजे करते हैं।
यहाँ भी पतिमहापात्र और मुधिरथ सेवकों की स्वतंत्र नीतियों की आवश्यकता होती है। दैतापति, पूजापंडा, महासुआर, प्रतिहार प्रमुख सेवक ठाकुर के स्कंध, श्रीमस्तक, श्रीभुज नीचे रहते हैं और साथ ही पाट डोरी में आगे और पीछे रहते हुए धीरे-धीरे पहंडी बीजे करते हैं। लेकिन सुदर्शन और सुभद्रा देवी को दैतापति सेवक हाथ और स्कंध पर उठाकर बीजे करते हैं। पहंडी बीजे से पहले चारिबाड के बाडग्राही दैतासेवक उपस्थित होते हैं और पहंडी के साथ तात्पूर्व नीतियों में भाग लेते हैं।
श्रीविग्रह के इस पहंडी बीजे से उत्कलीय संस्कृति की महानता का परिचय मिलता है। यह जितना विशेषतापूर्ण है, उतना ही भावयुक्त भी है। अतीत में अनेक भक्त, कवि ठाकुर के इस पवित्र पहंडी दर्शन से भावविह्वल होकर कई भजनों, स्तोत्रों आदि की रचना कर स्वयं को प्रभुपाद में समर्पित कर चुके हैं।
श्रीगुंडिचा और बहुड़ा यात्रा का एक प्रमुख आकर्षण पुरी गजपति महाराजा का तीन रथों पर छेरापहँरा सेवा है। इस छेरापहँरा नीति को देखने के लिए दोनों सिंहद्वार और गुंडिचा मंदिर में लाखों भक्त और जनसाधारण की भीड़ होती है। विभिन्न प्राचीन ग्रंथों, काव्यों आदि में जिस प्रकार छेरा पहँरा नीति का वर्णन हुआ है, वह दीर्घ एक सौ वर्षों के भीतर वैसा ही संपन्न नहीं हुआ है।
कुछ ऐतिहासिक, प्रबंधिक और शोधकर्ताओं के मतानुसार सूर्यवंशी राजा कपिलेंद्र देव के समय में यह छेरा पहँरा नीति शुरू हुई थी। आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व गजपति महाराज प्रतापरुद्र देव के राज्यकाल में पुरी गनामल्ल साही निवासी तत्कालीन देवळकरण सेवक गोविंद पट्टनायक (सांतर) कुंज मठ में दीक्षा लेकर गोविंद दास बाबाजी नाम से प्रसिद्ध हुए और 1456 शकाब्द में श्रीचैतन्य चकड़ा पोथी की रचना पूरी करके उसे प्रतापरुद्र देव को अर्पित की।
रास्ता कहा जाए तो उस समय ठाकुर की पहंडी के लिए मार्ग को सुवर्ण मार्जनी से गजपति महाराज साफ करते और भक्ति भाव का परिचय देते थे। अंग्रेज प्रशासक जॉन विम्स (1869-1877) द्वारा रचित “Memories of a Bengal Civilian” पुस्तक के 323 पृष्ठ के अंतिम भाग में वर्णित तथ्यों के अनुसार, जगन्नाथ रथ में बैठने का बड़ा उत्सव दिन राजा मंदिर के सामने स्थित पावाच को सोने की पंक्ति से साफ करने की विधि थी। ।
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि गजपति दिव्यसिंह देव तक ठाकुर की पहंडी के समय श्रीमंदिर के सामने स्थित पावाच और रास्ते को सोने की खडिका से साफ करने की विधि प्रचलित थी। केवल उनके पुत्र राजा मुकुंद देव के समय में रथ पर चारों ओर छेरापहँरा की नई विधि शुरू हुई थी और यह परंपरा आज तक चल रही है।
छेरा और पहँरा दो शब्दों के संमिश्रण से छेरापहँरा की सृष्टि होती है। छेरा शब्द का अर्थ होता है साफ करना, जबकि पहँरा का अर्थ है चलना। गजपति महाराज की छेरापहँरा नीति में मुख्यतः दर्शन, राजनीति, बंदापना, कपूर वर्तक, चामर, आलट सेवा, पयमाला ग्रहण आदि शामिल होते हैं। तीनों रथों पर श्रीविग्रहों के पहंडी विजे होने के बाद और अन्य नीतियों जैसे मदनमोहन, राम, कृष्ण विजे, सोल, चिता लागी रुंधा आदि नीतियों के बाद मुख्य विग्रहों की मैलम और मालफूल लागी होती है।
इसके बाद श्रीमंदिर प्रशासन द्वारा जनैका पदाधिकारी, श्रीमंदिर कमांडर, आवश्यक संख्या में पुलिस राजप्रसाद के निकट जाकर विधिवत गजपति महाराज को छेरापहँरा सेवा करने के लिए सूचना भेजते हैं। सूचना पाकर गजपति महाराज पारंपरिक पोशाक पहनकर पूर्ण राजकीय वेष में आते हैं। उक्त दिन छेरापहँरा नीति समाप्त होने तक गजपति महाराज उपवास रखते हैं और राजप्रसाद की अधिष्ठात्री देवी कनक दुर्गा ठाकुराणी को प्रणाम कर राजप्रसाद के आंगन में रखे हाथीदंत और चांदी निर्मित तामयान (मेहना) में बैठते हैं।
सर्वप्रथम बलभद्र के रथ में छेरापहँरा करते हैं। पहले गराबड़ु सेवकों से हाथआणी (राजा का हाथ बढ़ाने के लिए गराबड़ु सेवक पानी बढ़ाते हैं) लेकर गजपति पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। फिर सुनहरी कपूर आर्थी में कपूर बसाकर भंडार मेकप राजा के हाथ में रखते हैं। राजा ठाकुर के सामने आर्थी करते हुए सुनहरी चामर आलट सेवा करते हैं। तत्पश्चात रथ पर सिंहासन के नीचे झुकते हैं। पहले से दयणामाली द्वारा दिए गए श्वेत फूल भंडार मेकप पूजा पिंगण में धारण करते हैं। इस समय राजगुरु मुदुली सेवक से सुनहरी खडिका लाकर संस्कार कर गजपति के हाथ में बढ़ाते हैं। भंडार मेकप रथ के चारों ओर घूमकर श्वेत फूल अर्पित करते हैं और गजपति सुनहरी खडिका धारण कर रथ के चारों ओर घूमते हैं। इसके बाद घटुआरी प्रदत्त चांदी पिंगण में रखे चंदन पानी को राजगुरु संस्कार कर भंडार मेकप गजपति के हाथ में बढ़ाते हैं। फिर गजपति चंदन पानी रथ के चारों ओर छिड़कते हैं। इसी क्रम में बलभद्र, जगन्नाथ और सुभद्रा के रथ पर छेरापहँरा की जाती है। छेरापहँरा नीति समाप्त होने के बाद तामयान में गजपति महाराज पटुआर के साथ राजप्रसाद की ओर यात्रा करते हैं। श्रीमंदिर स्वत्तलिपि और परंपरा के अनुसार गजपति महाराज की अनुपस्थिति में उक्त सेवा मुदिरथ सेवक करते हैं।
भूतकाल में श्रीक्षेत्र में आयोजित रथयात्रा में गजपति महाराज छेरापहँरा के लिए अत्यधिक भव्य शोभायात्रा में निकलते थे। पहले खोरधा और पुरी गजपति महाराज एकाधिक हाथी गृहपालित पशु रूप में पालते थे। रथयात्रा के अवसर पर गजपति महाराज रथ में छेरापहँरा सेवा करते समय सुसज्जित हाथी भी शोभायात्रा में अग्रभाग में रहते थे। पारंपरिक रूप से पुरी गजपति महाराज के समय लगभग चार-पांच हाथी पालते थे, लेकिन धीरे-धीरे यह संख्या घटकर केवल दो हाथी रह गए। उनमें से गंगाराम नामक एक हाथी को गजपति महाराज वीरकिशोर देव (1956-1970) के समय में मस्तिष्क विकृति के कारण मार दिया गया था और मोती नामक शेष हाथी एक दुर्घटना में 1977 में मर गया। हाथी पालने की परंपरा समाप्त हो गई। पिछले कुछ सालों में नंदनकानन से एक हाथी लाकर छेरापहँरा शोभायात्रा में शामिल किया गया, लेकिन अब वह भी बंद हो गया है।
रथयात्रा में गजपति महाराज की अनुपस्थिति में मुदिरथ सेवक छेरापहँरा सेवा करते हैं। अतीत में कई बार मुदिरथ सेवक ने छेरापहँरा सेवा की है। रथ चकड़ा मैं छेरापहँरा संबंधित एक विवरण मिलता है, जैसे: “श्रीरामचंद्र देव मोगल होने के कारण रामचंद्र बड़जेना राउत राजुति में मुनीम खां डर में पालतू पड़ गए और मोगल बुलाए गए। शकवर्ष 1508 में रथयात्रा में राजा न होने के कारण छेरापहँरा नहीं हुआ। मुदिरथ (मुद्रा हस्त) शाढी न होने के कारण छेरापहँरा दामोदर चंपतिराय द्वारा करवाने की बात उठी थी। अंत में भीतरी नारायण महापात्र ने छेरापहँरा किया था।”
रथ चढ़ाने के बाद गजपति महाराज छेरापहँरा सेवा समाप्त करते हैं। इसके बाद रथ को तैयार किया जाता है। पहले सारथी और घोड़े को आरोहण करते हैं, फिर रूपकार सेवक घोड़ों को रथ रस्शि द्वारा बांधते हैं। इसके बाद रथ को विशेष रूप से निर्मित रस्शि से जोड़ते हैं। हर रथ में चार रस्शि बंधी होती हैं।
रथ खींचने का एक प्रमुख आकर्षण रस्सी है। इस पवित्र रस्सी को स्पर्श करते ही रथ खींचने का सौभाग्य प्राप्त करने वाले लाखों भक्त अपने आप को धन्य मानते हैं। गत कुछ वर्षों से यह रस्शि राज्य केरल कॉयर निगम से मंगाई जाती है। पहले कोलकाता कॉयर बोर्ड यह रस्शि सप्लाई करता था। रस्शि की माप और संख्या निम्नलिखित है:
सबसे पहले बलभद्र महाप्रभु के तालध्वज रथ को खींचा जाता है। समतल में दोनों भटिमुंडा और पुरी घंटुआ आमने-सामने घंट बजाते हैं। डाहुक रथ पर खड़े होकर लंबी बेंत धारण करते हैं और रथ गीत गाते हुए भक्तों को आमोदित करते हैं। सर्व धर्म निरपेक्ष लाखों श्रद्धालु भक्त रथ की रस्सी धारण कर रथ को खींचते हैं। भक्तों की हरीबोल, हुलहुली, संकीर्तन आदि से समग्र बड़दांड एक आध्यात्मिक वातावरण बनता है। तालध्वज रथ के बाद देवी सुभद्रा के देवदलन और जगन्नाथ के नंदीघोष रथ को खींचा जाता है। रथ खींचते समय विभिन्न मठ, स्थान, अनुष्ठान और व्यक्ति विशेष द्वारा ठाकुरों के उद्देश्य से बड़दांड के दोनों ओर कुछ निश्चित स्थानों पर पंथी भोग लगाए जाते हैं। इनमें राजप्रसाद और श्रीमंदिर सदर कार्यालय भी शामिल हैं। परंपरा के अनुसार, बड़दांड में स्थित माऊसी मां मंदिर में ठाकुरों को पोड़ा पीठा भोग लगाया जाता है।
रथयात्रा के समय एक विशेष आकर्षण यह होता है कि रथों की यात्रा के दौरान भक्तों की भीड़ के बीच से रथ निकलता है। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की दुर्घटना न हो, इसके लिए विशेष सुरक्षा व्यवस्था की जाती है। रथों के आगमन और प्रस्थान के समय विशेष प्रकार की आवाजाही होती है। इसी क्रम में श्रीमंदिर के विशेष पुजारी और सेवक भी रथों के साथ चलते हैं।
छेरापहँरा और रथ यात्रा की यह पूरी प्रक्रिया एक अद्भुत धार्मिक आयोजन है जो पुरी में हर साल बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
इस पूरे लेख के निष्कर्ष के रूप में, यह स्पष्ट होता है कि पुरी की रथयात्रा एक अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक आयोजन है जिसमें पुरोहित, सेवक और श्रद्धालु भक्तगण सम्मिलित होते हैं। गजपति महाराज द्वारा छेरापहँरा की पारंपरिक सेवा, ठाकुरों की पहंडी विजे और रथ खींचने की रस्में इस आयोजन के मुख्य आकर्षण हैं। लाखों भक्त इस पवित्र अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, जिससे वातावरण आध्यात्मिकता और भक्ति भाव से गुंजायमान हो उठता है। इस यात्रा में समर्पण, आस्था और परंपराओं की झलक मिलती है, जो उत्कलीय संस्कृति की महानता को दर्शाती है।
FAQ
Q-1 रथ यात्रा के पीछे क्या कहानी है?
रथ यात्रा की कहानी अत्यंत पौराणिक और श्रद्धास्पद है। यह यात्रा भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की रथों पर नगर भ्रमण की पौराणिक कथा से जुड़ी है। पुरी में यह यात्रा आषाढ़ मास की द्वितीया को होती है। मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ अपने जन्मस्थान गुंडीचा मंदिर की यात्रा करते हैं। यात्रा के दौरान भक्तजन रथ खींचकर पुण्य अर्जित करते हैं। यह उत्सव भक्ति, समर्पण और एकता का प्रतीक है, जिसमें विभिन्न समाज और वर्ग के लोग मिलकर भाग लेते हैं। रथ यात्रा के माध्यम से भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करने का यह अनोखा अवसर है।
Q-2 रथयात्रा उत्सव का क्या महत्व है?
रथयात्रा उत्सव का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व अत्यंत विशिष्ट है। यह उत्सव भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के प्रति श्रद्धा और भक्ति को प्रकट करता है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को पुरी में मनाया जाने वाला यह उत्सव, भगवान जगन्नाथ के मंदिर से गुंडीचा मंदिर तक यात्रा का प्रतीक है। इसमें रथ खींचने की परंपरा से भक्तगण भगवान के साथ अपने आध्यात्मिक संबंध को प्रगाढ़ करते हैं। रथयात्रा, समाज में एकता और समरसता का प्रतीक है, जिसमें सभी वर्ग और जाति के लोग मिलकर भाग लेते हैं। यह उत्सव विश्वभर में भारतीय संस्कृति और धार्मिक परंपराओं की महिमा को फैलाता है।
Q-3 रथ यात्रा किस भगवान के लिए है?
रथ यात्रा भगवान जगन्नाथ के लिए होती है, जो पुरी के विशाल श्रीमंदिर में विराजमान हैं। यह उत्सव हिंदू धर्म में अत्यधिक महत्वपूर्ण है और भगवान जगन्नाथ के भक्तों के लिए आध्यात्मिक संबंध को प्रकट करता है। इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ, उनकी दीवानी श्री सुभद्रा और भगवान बलभद्र के रथों को श्रद्धालुओं द्वारा खींचा जाता है। यह उत्सव भगवान के दर्शन का महान अवसर होता है और भक्तों को उनकी अद्वितीय प्रेम भावना को अनुभव कराता है। इसके माध्यम से लोग अपनी श्रद्धा को व्यक्त करते हैं और भगवान के समीप आत्मीयता का आनंद लेते हैं।
Q-4 रथ यात्रा का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
रथ यात्रा हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक उत्सव है जो भगवान जगन्नाथ के पुरी मंदिर में मनाया जाता है। इस उत्सव में भगवान के रथ को खींचकर उनके भक्तों का समर्पण और श्रद्धा का प्रतीकी अभिव्यक्ति होता है। यह उत्सव भक्ति और आत्मीयता का माहौल सृजित करता है, जिससे लोग अपने भगवान के साथ एक मधुर और संवादात्मक संबंध में आते हैं। रथ यात्रा का महत्व यही है कि यह भगवान और उनके भक्तों के बीच एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जुड़ाव को दर्शाता है, जो समाज में सहयोग, प्रेम, और शांति के संदेश को समर्पित करता है।
Q-5 जगन्नाथ पुरी के पीछे क्या कहानी है?
जगन्नाथ पुरी, ओडिशा के धार्मिक महत्व और ऐतिहासिक पृष्ठ की यह एक रोमांचक कहानी है। इस स्थल पर मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ का आविर्भाव महाभारत के काल में हुआ था। उनके मंदिर में दाखिल होने के लिए सभी जातियों को समान अधिकार है। यहां जगन्नाथ की रथ यात्रा का विशेष महत्व है, जिसमें भक्तों का समर्पण और विश्वास प्रकट होता है। पुरानी कथाओं में कहा गया है कि इस भगवान के मंदिर के प्रवेश द्वार को भगवान जगन्नाथ अपने पुराने भक्त उषा और विष्णु की अपेक्षाएं नामक।
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