अन्य नाम: राजबेश, राजराजेश्वर बेश, बड़ा तडाऊ बेश
सुनाबेश (या राजबेश या बड़ा तडाऊ बेश) महाप्रभु श्री जगन्नाथ का एक विशेष बेश है, जिसमें उन्हें स्वर्ण आभूषणों से सजाया जाता है। प्रतिवर्ष सुनाबेश पांच बार आयोजित होता है। यह सामान्यतः पौष पूर्णिमा (पुष्याभिषेक), फाल्गुन पूर्णिमा (दोल पूर्णिमा), हरिशयन एकादशी (बाहुड़ा एकादशी), कार्तिक पूर्णिमा (राजराजेश्वर बेश) और विजयादशमी (दशहरा) के दिन आयोजित होता है।
इनमें से श्रीमंदिर स्थित रत्नसिंहासन पर श्रीजीउ कार्तिक पूर्णिमा, पौष पूर्णिमा, दोल पूर्णिमा और दशहरा तिथियों पर सुनाबेश में सज्जित होते हैं और केवल एक बार सभी वर्गों की जनता के लिए आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन सिंहद्वार पर रखे तीन रथों पर सुनाबेश में सज्जित होते हैं।
श्रीजीउ का मध्याह्न धूप समाप्त होने के बाद, लगभग 2 घंटे की अवधि में तीन रथों पर सुनाबेश आयोजित होता है। श्रीजीउ सुनाबेश में लगभग 6 घंटे तक भक्तों को दर्शन देते हैं।
भितरच्छ महापात्र महाप्रभु श्रीजगन्नाथ के बाड़ में, तलिछ महापात्र बड़ा ठाकुर श्रीबलभद्र के बाड़ में और पुष्पालक सेवायत देवी सुभद्रा के बाड़ में क्रमशः नंदीघोष, तालध्वज और दरपदलन रथों में श्रीविग्रह को सुनाबेश में सज्जित करने की परंपरा है।
शिलालेखों में उल्लेख है कि राजा अनंगभीम देव (1211-1238) ने ओड़िशा के परामाध्य श्रीजगन्नाथ को राष्ट्रदेवता के रूप में घोषित किया था। राजा महाराजामाने प्रभु के आदेश वाहक सेवक के रूप में सेवा करते थे। कुछ राजा महाप्रभु को ओड़िशा के राजा के रूप में घोषित कर राज्याभिषेक भी करते थे। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार राजा अनंगभीम देव ने पवित्र आषाढ़ एकादशी तिथि पर सुनाबेश कराया था।
अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार रथों पर सुनाबेश बड़ा तडाऊ के परामर्श से राजा ने कराया था। बड़ा तडाऊ बेश मत के अनुसार राजा कपिलेंद्र देव 1460 में दक्षिण विजय से लौटते समय 16 हाथियों की पीठ पर स्वर्णालंकार लेकर आए थे। इसे महाप्रभु को समर्पित किया गया था, जिसके बारे में जयविजय द्वार स्थित शिलालेख में सूचना है। अलंकार के संबंध में राजा बड़ा तडाऊ का परामर्श लिया था।
रत्नवेदी पर महाप्रभु के विभिन्न बेश को सभी वर्गों के भक्त दर्शन नहीं कर पाते, इसलिए रथों पर सभी वर्गों के दर्शन के लिए महाप्रभु का सुनाबेश कराने की प्रार्थना राजा से की गई थी। दक्षिणाभिमुख यात्रा में तीन रथ सिंहद्वार पर पहुंचने के बाद बड़ा एकादशी दिन रथों पर सुनाबेश कराने की अनुमति राजा ने दी थी।
बहुत वर्षों तक रथों पर सुनाबेश में महाप्रभु को 138 प्रकार के रत्न जड़े स्वर्णालंकार लगाए गए। अब इसमें कुछ परिवर्तन हुआ है। महाप्रभु के मध्याह्न धूप के बाद रथों पर सुनाबेश के लिए भंडार गृह से पालय भंडारी मेकअप, पालय खुटिया सेवक, मजिस्ट्रेट पुलिस और श्रीमंदिर अधिकारी की उपस्थिति में बेश अलंकार की गिनती करके लाए जाते हैं। तीन रथों पर रथारूढ़ दारुदेवताओं को पालय पुष्पालक, दैतापति, खुटिया मेकअप, तलुच्छ, भितरच्छ प्रमुख सुनाबेश आभूषण लगाते हैं।
विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा || World Famous Car Festival
भगवान अलारनाथ || Bhagaban Alarnath
देबस्नान पूर्णिमा || Debasnan Purnima
श्रीजगन्नाथ:
किरिट, श्रीपयर, श्रीभुज, स्वर्ण चक्र और रौप्य शंख, ओड़ियाणी, चंद्रसूर्य, आड़कानी, घागड़ा माली, कदम्ब माली, बाहाड़ा माली, ताबीज माली, सेवती माली, तिलक, चंद्रिका, अलका, झोबाकंठी, त्रिखंडिका, कमरपट्टी।
श्रीबलभद्र:
किरिट, श्रीपयर, श्रीभुज, हल और मूषल, ओड़ियाणी, कुंडल, चंद्रसूर्य, आड़कानी, घागड़ा माली, कदम्ब माली, बाहाड़ा माली, बाघनख माली, सेवती माली, तिलक, चंद्रिका, अलका, झोबाकंठी, त्रिखंडिका, कमरपट्टी।
देवी सुभद्रा:
किरिट, ओड़ियाणी, कान, चंद्रसूर्य, घागड़ा माली, कदम्ब माली, सेवती माली, तगड़ी-2।
सुनाबेश महाप्रभु श्री जगन्नाथ के भव्य स्वरूप का अद्वितीय उदाहरण है, जिसमें स्वर्ण आभूषणों की चमक से देवताओं की दिव्यता प्रकट होती है। यह विशेष बेश पांच महत्वपूर्ण तिथियों पर आयोजित होता है, जिसमें भक्तों को भगवान के अनुपम स्वरूप का दर्शन मिलता है। सुनाबेश का इतिहास राजा अनंगभीम देव से शुरू होकर राजा कपिलेंद्र देव तक विस्तारित है, जिन्होंने इसे और भव्य बनाने के प्रयास किए।
इस अनुष्ठान के दौरान, भगवान श्री जगन्नाथ, श्रीबलभद्र और देवी सुभद्रा को स्वर्ण आभूषणों से सजाया जाता है, जो उनकी महिमा को और बढ़ाते हैं। सुनाबेश केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी परंपराओं और आस्थाओं को जीवित रखता है। यह अनुष्ठान यह सुनिश्चित करता है कि सभी वर्गों के भक्त भगवान की दिव्यता का अनुभव कर सकें, चाहे वे मंदिर के अंदर हों या रथों पर।
सुनाबेश का यह अद्वितीय आयोजन महाप्रभु की भक्ति में अद्वितीय भव्यता और समर्पण का प्रतीक है, जो भक्तों के दिलों में स्थायी छाप छोड़ता है।
FAQ
Q-1 सुना बेशा का महत्व क्या है?
सुनाबेशा, जिसे राजबेशा या बड़ा तडाऊ बेशा भी कहा जाता है, महाप्रभु श्री जगन्नाथ के दिव्य स्वरूप का एक विशिष्ट आयोजन है, जिसमें उन्हें स्वर्ण आभूषणों से सजाया जाता है। इस अनुष्ठान का धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व अत्यंत गहरा है। सुनाबेशा भगवान की महिमा को प्रकट करता है और भक्तों के लिए एक अद्वितीय अनुभव प्रदान करता है।
धार्मिक दृष्टिकोण से, सुनाबेशा भगवान के प्रति असीम श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है। यह आयोजन भक्तों को भगवान के अद्वितीय स्वरूप का दर्शन करने का अवसर प्रदान करता है, जिसे सामान्य दिनों में देख पाना संभव नहीं होता। स्वर्ण आभूषणों से सज्जित भगवान का दर्शन करना भक्तों के लिए अत्यंत शुभ और पवित्र माना जाता है।
सांस्कृतिक दृष्टिकोण से, सुनाबेशा ओडिशा की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं को जीवित रखता है। यह आयोजन स्थानीय कला और शिल्प को भी प्रोत्साहित करता है, क्योंकि आभूषणों का निर्माण अत्यंत कुशल कारीगरों द्वारा किया जाता है।
इतिहास के पन्नों में सुनाबेशा का उल्लेख राजा अनंगभीम देव और राजा कपिलेंद्र देव के समय से मिलता है। इन राजाओं ने इस अनुष्ठान को और भव्य और महत्वपूर्ण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस प्रकार, सुनाबेशा न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक धरोहर भी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी भगवान जगन्नाथ के प्रति श्रद्धा और भक्ति को जीवित रखता है।
Q-2 सुना बेशा के बाद क्या होता है?
सुनाबेशा के समापन के बाद, भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा को उनके रथों से उतारकर मंदिर के भीतर रत्नसिंहासन पर पुनः स्थापित किया जाता है। इस प्रक्रिया को “पहांडी बीजे” कहा जाता है।मंदिर के भीतर पुनः स्थापित होने के बाद, भगवान को सामान्य वस्त्र और आभूषण पहनाए जाते हैं। इसके बाद, उन्हें विशेष भोग अर्पित किया जाता है, जिसे “महाप्रसाद” के रूप में भक्तों में वितरित किया जाता है। यह महाप्रसाद अत्यंत पवित्र माना जाता है और भक्तगण इसे ग्रहण कर अपने जीवन को धन्य मानते हैं। सुना बेशा के बाद भगवान की दैनिक पूजा और अनुष्ठान नियमित रूप से प्रारंभ हो जाते हैं। मंदिर परिसर में भक्तों की भीड़ लगी रहती है, जो भगवान के दिव्य दर्शन करने के लिए आते हैं।
Q-3 भगवान जगन्नाथ का सुनाबेशा एक वर्ष में कितनी बार आता है?
सुनाबेशा का पहला आयोजन पौष पूर्णिमा (पुष्याभिषेक) के दिन होता है। यह समय भगवान के शीतकालीन उत्सव का होता है, जिसमें उन्हें विशेष प्रकार के आभूषणों और वस्त्रों से सजाया जाता है। दूसरा आयोजन फाल्गुन पूर्णिमा (दोल पूर्णिमा) के दिन होता है, जो होली के त्यौहार के साथ जुड़ा होता है।
तीसरा सुनाबेशा हरिशयन एकादशी (बाहुड़ा एकादशी) के दिन होता है, जब भगवान अपने भक्तों के पास वापस लौटते हैं। चौथा आयोजन कार्तिक पूर्णिमा (राजराजेश्वर बेशा) के दिन होता है, जिसे विशेष धार्मिक महत्व प्राप्त है। पाँचवाँ और अंतिम सुनाबेशा विजयादशमी (दशहरा) के दिन होता है, जो बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।
इन सभी आयोजनों के दौरान, भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा को स्वर्ण आभूषणों से सजाया जाता है और उन्हें विशेष भोग अर्पित किया जाता है। भक्तगण इस समय मंदिर में उपस्थित होकर भगवान के दिव्य और अद्वितीय स्वरूप के दर्शन करते हैं और आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इस प्रकार, सुनाबेशा भगवान जगन्नाथ के भक्तों के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र अवसर होता है, जो उनके जीवन में आध्यात्मिकता और भक्ति का संचार करता है।
Q-4 जगन्नाथ सोने का वजन कितना है?
सुनाबेशा के दौरान, भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन को लगभग 208 किलो सोने के आभूषण पहनाए जाते हैं। इन आभूषणों में मुकुट, कंगन, हार, अंगूठियां और अन्य विशेष आभूषण शामिल होते हैं। इनकी चमक और भव्यता न केवल भगवान की दिव्यता को दर्शाती है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि जगन्नाथ भगवान अपने भक्तों के बीच कितने प्रिय और पूजनीय हैं।
इन सोने के आभूषणों का एक विशेष ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व भी है। राजा अनंग भीम देव और अन्य ओडिशा के राजाओं द्वारा इन आभूषणों को भेंट स्वरूप प्रदान किया गया था। ये आभूषण भगवान के प्रति उनकी भक्ति और सम्मान को दर्शाते हैं।
भगवान जगन्नाथ के इन अलंकरणों को देखकर भक्तगण भावविभोर हो जाते हैं और उनके दिलों में भगवान के प्रति भक्ति और श्रद्धा की भावना प्रबल हो जाती है। सुना बेशा के दिन, मंदिर परिसर और इसके आस-पास का वातावरण एक अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है।
Q-5 विश्व का सबसे बड़ा रथ महोत्सव कौन सा है?
विश्व का सबसे बड़ा रथ महोत्सव, जिसे “रथ यात्रा” के नाम से जाना जाता है, ओडिशा के पुरी शहर में आयोजित होता है। यह महोत्सव भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के सम्मान में मनाया जाता है। रथ यात्रा के दौरान, इन देवताओं की मूर्तियों को बड़े-बड़े रथों पर सजाया जाता है और सैकड़ों हजारों भक्त इन रथों को खींचते हैं।
रथ यात्रा का यह महोत्सव अत्यंत महत्वपूर्ण और भव्य होता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। यह महोत्सव हर वर्ष आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को प्रारंभ होता है। महोत्सव के दौरान, भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को उनके निवास स्थान, जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक ले जाया जाता है। इस यात्रा को “गुंडिचा यात्रा” भी कहा जाता है।
रथ यात्रा के दिन, पुरी नगरी एक विशाल मेले में परिवर्तित हो जाती है। भक्तगण अपने प्रिय देवताओं के दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं। रथों की भव्यता और सजावट देखते ही बनती है। तीन विशाल रथ – नंदीघोष (भगवान जगन्नाथ का रथ), तालध्वज (बलभद्र का रथ), और देवदलन (सुभद्रा का रथ) – इनका निर्माण हर वर्ष नया किया जाता है और इन्हें आकर्षक रूप से सजाया जाता है।
इस प्रकार, पुरी का रथ यात्रा महोत्सव न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में सबसे बड़े और प्रसिद्ध रथ महोत्सव के रूप में विख्यात है। इसकी भव्यता, श्रद्धा और भक्तों का उत्साह इसे एक अद्वितीय और अविस्मरणीय अनुभव बनाते हैं।
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